संपूर्ण हवन मंत्र – Sampurn havan mantra

संपूर्ण हवन मंत्र - Sampurn havan mantra

संपूर्ण हवन मंत्र कहना सरल, किन्तु जो संपूर्ण हवन मंत्र ढूंढते हैं यदि उन्हें एकत्रिक करके संपूर्ण हवन मंत्र प्रदान कर भी दिया जाये तो वो उसका कोई उपयोग नहीं कर पायेंगे। किन्तु कालचक्र ऐसा है कि सबके-सब स्वयं कर्मकांडी ही बन जाना चाहते हैं और जो कर्मकांडी हैं उनमें से अधिकतर अर्थोपार्जन मात्र के चक्रव्यूह में पड़े हैं उन्हें शास्त्र सम्मत विधि-विधानों से कोई लेना-देना नहीं है और न ही रुचि है। अत्यल्प विद्वान ही कर्मकांड में रुचि रखते हैं और शास्त्रान्वेषण करते हैं। यहां संपूर्ण हवन मंत्र दिया गया है जिसका तात्पर्य संपूर्ण हवन विधि नहीं है और वास्तविक तात्पर्य हवन के वो मंत्र हैं जो सभी हवनों में प्रयोग किये जाते हैं।

हवन हेतु अग्निवास का विचार करना होता है। मुख्यरूपेण तिथि व वार के संयोग से अग्निवास का विचार किया जाता है, यद्यपि नक्षत्रानुसार भी अग्निवास विचार के एक विधान है जो सूर्य नक्षत्र व चंद्र नक्षत्र से किया जाता है। किन्तु लगभग सर्वत्र व्यवहार में जो अग्निवास विचार किया जाता है वह तिथि व वार के संयोग से होने वाला है। अग्निवास के सूत्र हैं जिसके द्वारा अग्निवास विचार किया जाता है। अग्निवास विचार से संबंधित जानकारी हेतु यहां दिये गए आलेख का अवलोकन किया जा सकता है।

अग्निवास विचार
अग्निवास विचार

अग्नि वास चार्ट – agnivasa chart 2025

सबसे पहले हमें संपूर्ण हवन मंत्र का तात्पर्य समझना होगा, हवन विधि और हवन मंत्र के अंतर को समझकर तब वास्तविक मंत्रों का अवलोकन करेंगे तो उचित होगा, अन्यथा कितने भी मंत्र क्यों न दे दिये जायें कम ही प्रतीत होंगे क्योंकि भिन्न-भिन्न पूजा में प्रधानदेवता भिन्न-भिन्न होते हैं जिससे उनके मंत्र भी भिन्न हो जाते हैं। जब वेदियां बनायीं जाती है तो वेदियों के देवता भी जुड़ जाते हैं। वेदियों की संख्या सर्वत्र समान नहीं होती। पुनः विवाह के होम की बात करें तो भिन्न मंत्र होते हैं और उपनयन में भिन्न मंत्र होते हैं एवं अन्य संस्कारों में भी भिन्न मंत्र होते हैं।

ऐसी स्थिति में संपूर्ण हवन मंत्र का तात्पर्य यह हो जाता है कि सभी संस्कारों के हवन मंत्र, सभी पूजा के हवन मंत्र, सभी यज्ञों के हवन मंत्र एवं अन्यान्य शान्तिक-पौष्टिक कर्मों के भी हवन मंत्र एक साथ प्रस्तुत किये जायें। संकलन करना जटिल भले ही हो किन्तु असंभव तो नहीं किन्तु उसकी उपयोगिता क्या होगी ? यथा विवाह हवन मंत्र संकलित कर भी दिया जाय तो विवाह पद्धति की आवश्यकता भी होगी अन्यथा मात्र हवन मंत्र की उपयोगिता क्या होगी ?

इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि संपूर्ण हवन मंत्र का तात्पर्य यह नहीं है कि सभी कर्मों के हवन मंत्र संकलित किये जायें अपितु यह है कि सभी प्रकार के हवन में सामान्य मंत्र कितने होते हैं ? जितने भी सामान्य मंत्र होते हैं उन सभी का संकलन ही संपूर्ण हवन मंत्र सिद्ध होता है शेष प्रधान देवता, वेदियों के अनुसार, कर्मों के अनुसार मंत्र जुड़ते रहेंगे।

किन्तु इससे पूर्व आवश्यक यह है कि संपूर्ण हवन विधि को समझा जाये क्योंकि यदि सम्पूर्ण हवन विधि को नहीं समझेंगे तो हवन के मंत्रों का प्रयोग भी नहीं समझ सकेंगे। यहां संपूर्ण हवन विधि से संबंधित अनेकों प्रकाशित आलेखों का अनुसरण पथ दिया गया है जिससे हवन विधि को जाना और समझा जा सकता है और तदनंतर संपूर्ण हवन मंत्र क्या है यह समझ में आ जायेगा और पुनः संपूर्ण हवन मंत्र का अवलोकन करेंगे।

हवन विधि से संबंधित आलेख संपूर्ण कर्मकांड विधि पर पूर्व प्रकाशित हैं जो नीचे दिये जा रहे हैं और इन आलेखों का अवलोकन करने से हवन की विधि समझ में आयेगी तत्पश्चात मंत्र की उपयोगिता सिद्ध होगी।

उपरोक्त आलेखों का अवलोकन करने के पश्चात् हवन की विधि और हवन के मंत्र क्या होते हैं यह सरलतापूर्वक समझा जा सकता है। अब हवन विधि अर्थात पञ्चभूसंस्कार, कुशकण्डिका आदि की चर्चा किये बिना हवन के मंत्रों को जानना चाहें तो को 9 मंत्र होते हैं जो हवन के पूर्व भाग में प्रयुक्त होते हैं एवं यदि 3 भूरादि आहुति का भी योग कर दें तो 12 हो जाते हैं। वाराहुति, नवाहुति आदि नामों से भी इन्हें जाना जाता है एवं प्रधान हवन के पश्चात् भी उत्तरांग में भी इनका प्रयोग होता है।

उत्तरांग में पूर्णाहुति, वसोर्द्धारा, बर्हिहोम का भी मंत्र प्रयुक्त होता है। पुनः यहीं पर यह भी प्रश्न उत्पन्न होता है कि बलिदान, भस्मधारण आदि के मंत्रों को हवन का मंत्र माना जाय अथवा नहीं ?

पञ्चभूसंस्कार, कुशकण्डिका में मंत्रों का प्रयोग नहीं होता है, अग्निस्थापन में मंत्र प्रयोग होता है, ब्रह्मावरण में भी मंत्र प्रयोग होता है और इन मंत्रों को हवन का मंत्र माना जाय अथवा नहीं यह विकट प्रश्न होगा। इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि संपूर्ण हवन मंत्र ढूंढना स्वयं में ही अनुचित है क्योंकि जिसे हवन विधि का ज्ञान हो उसे मंत्रों का भी ज्ञान होता है और वह संपूर्ण हवन मंत्र नामक शब्दावली का प्रयोग नहीं कर सकता है।

अब हम यदि संपूर्ण हवन मंत्रों की बात करें तो उसमें से संस्कारों के मंत्र, प्रधान देवताओं के मंत्र, मण्डल देवताओं के मंत्र आदि से रहित ही हो सकता है और इसमें नवाहुति, स्विष्टकृद्धोम, पूर्णाहुति, वसोर्द्धारा, बर्हिहोम आदि मंत्र ही आते हैं और इतने मंत्रों को ही प्रस्तुत किया जा सकता है।

नवाहुति मंत्र

कुश द्वारा ब्रह्मा से अन्वारब्ध करके पातितदक्षिणजानु होकर प्रज्वलित अग्नि में स्रुवा से आज्याहुति दे। आहुति के पश्चात् शेष प्रोक्षणी में प्रक्षेप करे :-

  1. ॐ इन्द्राय स्वाहा, इदं इन्द्राय।
  2. ॐ अग्नये स्वाहा, इदं अग्नये।
  3. ॐ सोमाय स्वाहा, इदं सोमाय।

यदि यहां विधि का वर्णन न किया जाय तो मंत्रों का प्रयोग कैसे करेंगे ?

फिर प्रायश्चित्तसंज्ञक ये पञ्चमहावारुणी होम करे :

  1. ॐ त्वन्नोऽअग्ने वरुणस्य विद्वान् देवस्य हेडो अवयासि सीष्ठाः। यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो विश्वा द्वेषाᳪसि प्रमुमुग्ध्यस्मत् स्वाहा, इदमग्मीवरुणाभ्याम् ॥
  2. ॐ स त्वन्नो अग्नेऽवमो भवोती नेदिष्ठो अस्या उषसो व्युष्टौ। अवयक्ष्व नो वरुणᳪरराणो वीहि मृडीकᳪसुहवो न एधि स्वाहा, इदमग्नीवरुणाभ्याम् ॥
  3. ॐ अयाश्चाग्नेऽस्य नभिशस्तिपाश्च सत्यमित्त्वमया असि । अया नो यज्ञ ᳪ वहास्ययानो धेहि भेषज ᳪ स्वाहा, इदमग्नये॥
  4. ॐ ये ते शतँवरुण ये सहस्रं यज्ञियाः पाशा वितता महान्तः। तेभिर्न्नो अद्य सवितोत विष्णुर्विश्वे मुञ्चन्तु मरुतः स्वर्काः स्वाहा, इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुद्भ्यः स्वर्केभ्यः॥
  5. ॐ उदुत्तमँव्वरुण पाशमस्मदवाधमं विमध्यमᳪश्रथाय । अथा व्वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम स्वाहा, इदं वरुणाय ॥

तदुत्तर अन्वारब्ध (ब्रह्मा से कुशात्मक संबंध) के बिना स्थापित-पूजित देवताओं की, जप किये गए मंत्र की आदि शाकल्यादि अन्य होम द्रव्य हो तो उससे अन्यथा आज्य से ही आहूति दे।

स्विष्टकृद्धोम : ॐ अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा, इदं अग्नयेस्विष्टकृते।

व्याहृति होम : (आज्याहुति)

  • ॐ भूः स्वाहा, इदं भूः॥
  • ॐ भुवः स्वाहा, इदं भुवः॥
  • ॐ स्वः स्वहा, इदं स्वः ॥

पञ्चमहावारुणी होम

  1. ॐ त्वन्नोऽअग्ने वरुणस्य विद्वान् देवस्य हेडो अवयासि सीष्ठाः। यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो विश्वा द्वेषाᳪसि प्रमुमुग्ध्यस्मत् स्वाहा, इदमग्मीवरुणाभ्याम् ॥
  2. ॐ स त्वन्नो अग्नेऽवमो भवोती नेदिष्ठो अस्या उषसो व्युष्टौ। अवयक्ष्व नो वरुण ᳪ रराणो वीहि मृडीकᳪसुहवो न एधि स्वाहा, इदमग्नीवरुणाभ्याम् ॥
  3. ॐ अयाश्चाग्नेऽस्य नभिशस्तिपाश्च सत्यमित्त्वमया असि । अया नो यज्ञᳪवहास्ययानो धेहि भेषज ᳪ स्वाहा, इदमग्नये॥
  4. ॐ ये ते शतँवरुण ये सहस्रं यज्ञियाः पाशा वितता महान्तः। तेभिर्न्नो अद्य सवितोत विष्णुर्विश्वे मुञ्चन्तु मरुतः स्वर्काः स्वाहा, इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुद्भ्यः स्वर्केभ्यः॥
  5. ॐ उदुत्तमँव्वरुण पाशमस्मदवाधमं विमध्यमᳪश्रथाय । अथा व्वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम स्वाहा, इदं वरुणाय ॥
  6. तथा : ॐ प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये॥ (मानसिक मात्र)

पूर्णाहुति मंत्र

ॐ मूर्द्धानन्दिवो ऽअरतिम्पृथिव्या वैश्वानरमृत ऽआजातमग्निम् ॥ कवि ᳪ सम्म्राजमतिथिं जनानामासन्ना पात्रञ्जनयन्त देवाः स्वाहा । इदं अग्नये वैश्वानराय वासुरुद्रादित्येभ्यः शतक्रतवे सप्तवते अग्नये अद्भ्यः पुरुषाय श्रियै ॥

बृहद्ऋचा (पूर्णाहुति)

  1. समुद्रादूर्मिर्मधुमाँ२ ऽउदारदुपाᳪशुना सममृतत्वमानट् । घृतस्य नाम गुह्यं यदस्ति जिह्वा देवानाममृतस्य नाभिः॥१॥
  2. वयंनाम प्रब्रवामा घृतस्यास्मिन्यज्ञे धारयामा नमोभिः । उपब्रह्मा शृणवच्छस्यमानं चतुःशृङ्गोऽवमीद्गौरऽएतत् ॥२॥
  3. चत्वारि शृङ्गा त्रयो ऽअस्य पादा द्वे शीर्षे सप्त हस्तासो ऽअस्य । त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महो देवो मर्त्याँ २ ऽआविवेश ॥३॥
  4. त्रिधा हितं पणिभिर्गुह्यमानङ्गविर्देवासो घृतमन्वविन्दन् । इन्द्र एकᳪसूर्य ऽएकं जजान वेनादेक ᳪ स्वधया निष्टतक्षुः ॥४॥
  5. एता ऽअर्षन्ति हृद्यात्समुद्राच्छतव्रजा रिपुणा नावचक्षे । घृतस्य धारा ऽअभि चाकशीमि हिरण्ययो वेतसो मध्य ऽआसाम् ॥५॥
  6. सम्यक्स्रवन्ति सरितो न धेना ऽअन्तर्हृदा मनसा पूयमानाः । एते ऽअर्षन्त्यूर्मयो घृतस्य मृगा ऽइव क्षिपणोरीषमाणाः ॥६॥
  7. सिन्धोरिव प्राध्वने शूघनासो वातप्रमियः पतयन्ति यह्वाः । घृतस्य धारा ऽअरुषो न वाजी काष्ठा भिन्दन्नूर्मिभिः पिन्वमानः ॥७॥
  8. अभि प्रवन्त समनेव योषाः कल्याण्यः स्मयमानासो ऽअग्निम् । घृतस्य धाराः समिधो नसन्त ता जुषाणो हर्यति जातवेदाः ॥८॥
  9. अभ्यर्षत सुष्टुतिङ्गव्यमाजिमस्मासु भद्रा द्रविणानि धत्त । इमं यज्ञं नयत देवता नो घृतस्य धारा मधुमत्पवन्ते ॥१०॥
  10. धामन्ते विश्वं भुवनमधि श्रितमन्तः समुद्रे हृद्यन्तरायुषि । अपामनीके समिथेय ऽआभृतस्तमश्याम मधुमन्तं तऽऊर्मिम् ॥११॥
  11. पुनस्त्वादित्यारुद्द्रा व्वसवः समिन्धताम्पुनर्ब्रह्माणो वसुनीथयज्ञैः ॥ घृतेन त्वन्तन्वं वर्द्धयस्व सत्याः सन्तु यजमानस्यकामाः॥१२॥
  12. सप्तेऽअग्ने समिधः सप्तजिह्वाः सप्त ऋषयः सप्तधाम प्रियाणि ॥ सप्त होत्राः सप्तधा त्वायजन्ति सप्त योनीरापृणस्व घृतेनस्वाहा ॥१३॥
  13. मूर्द्धानन्दिवोऽअरतिम्पृथिव्या वैश्वानरमृत ऽआजातमग्निम् ॥ कवि ᳪ सम्म्राजमतिथिञ्जनानामासन्ना पात्रञ्जनयन्त देवाः॥१४॥
  14. पूर्णादर्वि परा पत सुपूर्णा पुनुरापत ॥ वस्नेव विक्रीणावहा ऽइषमूर्जᳪ शतक्रतो ॥१५॥
  15. अथ प्रातराहुते वाहुते वा यतरथाकामयेत सोस्याऽअनिरसितायैकुंभ्यै दर्व्यो पहन्ति पूर्णादर्वि परापत सुपूर्णा पुनरापत। वस्नेवविक्रीणावहाऽइषमूर्जᳪशतक्रतो स्वाहा ॥१६॥

वसोर्धारा : स्रुचि से घृत की अविच्छन्न धारा अग्नि में इस मंत्र से करे – ॐ वसोः पवित्रमसि शतधारं वसोः पवित्रमसि सहस्रधारम्। देवस्त्वा सविता पुनातु वसोः पवित्रेण शतधारेण सुप्वा कामधुक्षः स्वाहा ॥

बर्हिहोम :  ॐ देवा गातु विदो गातु वित्वा गातुमित मनसस्पत इमं देव यज्ञ स्वाहा वातेधाः स्वाहा ॥

इस प्रकार यहां हवन के मंत्र तो दिये गये हैं किन्तु मात्र इतने मंत्रों से ही हवन नहीं होता है हवन में और भी बहुत सारे मंत्र प्रयुक्त होते हैं और इसके लिये यह सर्वथा आवश्यक है कि हवन विधि को भली-भांति समझा जाये।

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