स्वस्तिवाचन मंत्र पौराणिक – Swastiwachan

स्वस्ति वाचन मंत्र - 1

हम स्वस्तिवाचन (Swastiwachan) मंत्र अथवा भद्रसूक्त अथवा वेदोक्त स्वस्तिवाचन आदि से परिचित हैं, पाठ भी करते हैं। किन्तु जब यजमान अनुपनीत हो अथवा स्खलित ब्राह्मण हो तो वेद मंत्र का प्रयोग नहीं कर सकते और तब हमें पौराणिक स्वस्तिवाचन की आवश्यकता होती है। यहां पौराणिक स्वस्तिवाचन मंत्र दिया गया है जो उपरोक्त स्थिति में उपयोगी सिद्ध होगा।

स्वस्तिवाचन मंत्र पौराणिक – Swastiwachan

पूजा-अनुष्ठानकिसी भी धार्मिक अनुष्ठान में पवित्रीकरणादि के पश्चात प्रथमतः स्वस्तिवाचन किया जाता है।  भद्रसूक्त का पाठ करना स्वस्तिवाचन कहलाता है । भद्रसूक्त उन मंत्रों का समूह है जिसमें हम कल्याणकामना करते हैं । जब हमें पौराणिक स्वस्तिवाचन की आवश्यकता होती है तो सरलता से उपलब्ध नहीं होती और हम विकल्पाभाववश भद्रसूक्त का ही पाठ कर देते हैं।

यदि हम पौराणिक पूजा विधि की बात करें तो वहां हमें पौराणिक स्वस्तिवाचन की भी आवश्यकता होती है। भविष्य पुराण में भी एक स्वस्तिवाचन मिलता है जो अल्प परिवर्तन के साथ स्कन्द पुराण में भी मिलता है साथ ही लक्ष्मी नारायण संहिता में भी एक स्वस्तिवाचन मिलता है। यहां हम उनका अवलोकन करेंगे।

भविष्य पुराणोक्त स्वस्तिवाचन

स्वस्त्यस्त्विह च विप्रेभ्यः स्वस्ति राज्ञे तथैव च ।
गोभ्यः स्वस्ति प्रजाभ्यश्च जगतः शान्तिरस्तु वै ॥
शं नोऽस्तु द्विपदे नित्यं शान्तिरस्तु चतुष्पदे ।
शं प्रजाभ्यस्तथैवास्तु शं सदात्मनि चास्तु वै ॥
भूः शान्तिरस्तु देवेश भुवः शान्तिस्तथैव च ।
स्वश्चैवास्तु तथा शान्तिः सर्वत्रास्तु तथा रवेः ॥
त्वं देव जगतः स्रष्टा पोष्टा चैव त्वमेव हि ।
प्रजापाल ग्रहेशान शान्तिं कुरु दिवस्पते ॥

भविष्यपुराणम् /पर्व १ (ब्राह्मपर्व) अध्यायः ५६

स्कन्द पुराणोक्त स्वस्तिवाचन

स्वस्ति भवतु विप्रेभ्यः स्वस्तिराज्ञेऽस्तु नित्यशः ।
गोभ्यः स्वस्ति प्रजाभ्यस्तु जगतः शांतिरस्तु वै ॥
स्वस्त्यस्तु द्विपदे नित्यं शांतिरस्तु चतुष्पदे।
शं प्रजाभ्यस्तथैवास्तु शं तथात्मनि चास्तु नः ॥
शांतिरस्तु च देवस्य भूर्भुवः स्वः शिवं तथा।
शांतिरस्तु शिवं चास्तु सर्वतः स्वस्तिरस्तु नः ॥
त्वं देव जगतः स्रष्टा पोष्टा चैव त्वमेव हि ।
प्रजाः पालय देवेश शांतिं कुरु जगत्पते ॥

स्कन्दपुराणम्/खण्डः २ (वैष्णवखण्डः)/पुरुषोत्तमजगन्नाथमाहात्म्यम्/अध्यायः २५

लक्ष्मीनारायण संहितोक्त स्वस्तिवाचन

स्वस्तिमश्विनौ कुरुतं तव ।
अदितिस्ते स्वस्तिमेव पूषा स्वस्तिं दधातु ते ।
द्यौः क्षितिस्ते स्वस्तिमेव चिनुतः स्वस्तिमर्यमा ॥
वायुः स्वस्तिं गुरुः स्वस्तिं वह्निः स्वस्तिं करोतु ते ।
देव्यः स्वस्तिं तथा देवाः स्वस्तिं कुर्वन्तु ते सदा ॥

लक्ष्मीनारायणसंहिता – खण्डः २ (त्रेतायुगसन्तानः) – अध्यायः १४६

किन्तु जहां भद्रसूक्त का पाठ निषिद्ध है (जो वेदाधिकार रहित हो) वहां पौराणिक स्वस्तिवाचन ही करना चाहिये और यहां पौराणिक स्वस्तिवाचन दिया गया है इस कारण यह विशेष महत्वपूर्ण है। पौराणिक स्वस्तिवाचन में उपरोक्त दोनों का यहां संकलन किया गया है जो वेदाधिकार रहित अवस्था में कर्मकांडी पंडितों और यजमानों के लिये भी विशेष उपयोगी सिद्ध होगा क्योंकि वर्त्तमान युग की जीवनशैली ही ऐसी होती जा रही है जहां सभी अपने वेदाधिकार का ही त्याग करते जा रहे हैं। हाथ में अक्षत-पुष्प लेकर इष्ट का ध्यान करते हुए स्वस्तिवाचन करना चाहिए :-

पौराणिक स्वस्तिवाचन

विनम्र आग्रह : त्रुटियों को कदापि नहीं नकारा जा सकता है अतः किसी भी प्रकार की त्रुटि यदि दृष्टिगत हो तो कृपया सूचित करने की कृपा करें : info@karmkandvidhi.in

कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *