81 पद वास्तु मंडल पूजन मंत्र (पौराणिक) – vastu mandal pujan

वास्तु मंडल पूजन मंत्र (पौराणिक) - vastu mandal puja वास्तु मंडल पूजन मंत्र (पौराणिक) - vastu mandal puja

भूमि एवं मकान संबंधी किसी भी कार्य में वास्तु पूजन अनिवार्य होता है, साथ ही हवन में आहुति की संख्या यदि सहस्राधिक हो अथवा हवन कुण्ड निर्माण किया जाय तो वास्तु पूजन (vastu mandal pujan) आवश्यक होता है। यज्ञ-प्राणप्रतिष्ठा आदि में तो वास्तु पूजन अनिवार्य होता ही है। यदि मंडप निर्माण किया गया हो तो पथमतः मंडप पूजन किया जाता है तब वास्तु पूजन। यदि मंडप निर्माण नहीं किया गया हो अर्थात घर में ही अनुष्ठान पूर्वक किया जा रहा हो तो वृद्धिश्राद्ध के उपरांत प्रथमतः वास्तुपूजन ही करना चाहिये यही क्रम है। यहां 81 पदों वाले वास्तुमंडल की पूजा विधि और मंत्र दिये गये हैं।

81 पद वास्तु मंडल पूजन मंत्र (पौराणिक) – vastu mandal pujan

वास्तु मंडल के दो प्रकार देखे जाते हैं – यज्ञ-मंदिर आदि के लिये अलग प्रकार होता है एवं गृह में पूजन कर रहे हों तो उसका दूसरा प्रकार होता है। घर में पूजा करने वाले वास्तु मंडल में ८१ कोष्ठ होते हैं जिसपर ४५ देवताओं का आवाहन पूजन किया जाता है।

कलश मण्डल के मध्य में स्थापित करना चाहिये। नीचे वास्तु पूजन मंत्र दिया गया है। दिये गए मंत्रानुसार वेदी में क्रमांकित कोष्ठक पर वास्तु देवताओं का आवाहन-पूजन करना चाहिये।

81 पद वास्तु मण्डल
81 पद वास्तु मण्डल

प्रामाणिक वास्तु मंडल चक्र

रक्तो गौरस्तथा शोणः सितरक्तः सितस्तथा।
पीतः शुक्लश्च धर्मश्च पूषा रक्तः प्रकीर्तितः ॥
श्यामः शुक्रश्च कृष्णश्च पीतः शुक्लो यथाक्रमम्।
पीतो भृंगः पुनः शुक्लः कृष्णः शुक्लस्तथैव च ।
रक्तः शुक्लश्च शोणश्च कृष्णरक्तस्तथैव च ॥
धूम्रपीतो रक्तपीतः शुक्लः कृष्णश्च श्यामकः ।
रक्तवर्णेन द्वात्रिंशद्दश वर्णाः प्रकीर्तिताः ॥
शुक्लशोणं पुनः श्वेतं सिंदूराभं प्रकीर्तितम् ।
पांडुरकुंकुमाभं च रक्तं ज्ञेयं च पीतकम् ॥
शुक्लपीतं च श्वेतं च गौरं चेत्यष्टवर्णकम् ।
पीतं रक्तं च श्यामं च गौरं चेति चतुष्टयम्॥

64 पद वास्तु मण्डल
64 पद वास्तु मण्डल

हम अनेकानेक प्रकार के वास्तु मण्डल को देखते रहते हैं जिससे संशय भी उत्पन्न होता है कि कौन सही है और कौन नहीं। संशय निवारण के लिये यह आवश्यक होता है कि प्रामाणिक अर्थात प्रमाण के साथ विचार करें। यहां भविष्य पुराण, लक्ष्मीनारायण संहिता और नारद संहिता के प्रमाणों पर आधारित वास्तु मंडल प्रस्तुत किया गया है। ऊपर ८१ पद वास्तु मण्डल दिया गया है और नीचे ६४ पद वास्तु मण्डल एवं उसके प्रमाण (भविष्य पुराणोक्त) दिये गए हैं। वास्तु मंडल बनाने की विधि से संबंधित अन्य विस्तृत जानकारी पृथक आलेख में है।

वास्तु मंडल पूजन मंत्र (पौराणिक)

वर्त्तमान काल में जिस प्रकार से वेदाधिकार से लोग च्युत होते जा रहे हैं उस संदर्भ में यही आवश्यक हो जाता है कि पौराणिक मंत्रों से ही पूजनादि का आश्रय ग्रहण करें क्योंकि अनधिकृत रूप से वेदमंत्र का प्रयोग करना दोषद ही होता है। एवं उक्त परिस्थिति में यह संकलन अत्युपयोगी सिद्ध होगा। यहां वास्तु मंडल पूजन के पौराणिक मंत्रों का संकलन किया गया है जो कि लक्ष्मीनारायण संहिता में वर्णित है अर्थात प्रामाणिक होने के कारण इसकी उपयोगिता में और वृद्धि होती है।

१. शिखि : ओं ऐशाने च पदे देवमीशानं शिखिनं हरम् । ध्यात्वा चाऽऽवाहयाम्यत्र शंभवाय नमो नमः । भवाय शंभवे शिवतराय च नमो नमः । ओं भूर्भुवः स्वः शिखिन्निहाऽऽगच्छ तिष्ठ च ते नमः॥ ओं भूर्भुवः स्वः शिखिने नमः॥

२. पर्जन्य : तद्दक्षिणे च पर्जन्यं ध्यात्वा चावाहयाम्यहम् । अभिवर्षतु पर्जन्यः पर्जन्याय नमो नमः । ओं भूर्भुवः स्वः पर्जन्य इहागच्छ च तिष्ठ च ॥ ओं भूर्भुवः स्वः पर्जन्याय नमः ॥

३. जयन्त : ततो दक्षे जयन्तं च ध्यात्वा चावाहयाम्यहम् । जयन्त वर्मणा छन्न चामृतेन समाप्लुता । उरसा बलमापन्न त्वां मृन्दन्तु सुरा इह । ओं भूर्भुवः स्वः जयन्त इहागच्छ च तिष्ठ च । जयन्ताय नमस्तेऽस्तु जयं तनोतु सर्वथा॥ ओं भूर्भुवः स्वः जयन्ताय नमः ॥

४. महेन्द्र : ततो दक्षे महेन्द्रं च ध्यात्वा चावाहयाम्यहम् । ओम् आयात्विन्द्रो वसत्वत्र स्तुतः शूरश्च वर्धनः । ओं भूर्भुवः स्वः महेन्द्र इहागच्छ च तिष्ठ च । महेन्द्राय नमो वज्रधराय द्युप्रभाविणे। ओं भूर्भुवः स्वः महेन्द्राय नमः ॥

५. सूर्य : ततो दक्षे सूर्यदेवं ध्यात्वा चावाहयाम्यहम् । सवित्रे ब्रह्मरूपाय तेजःकोशाय ते नमः । ओं भूर्भुवः स्वः सूर्य त्वमिहागच्छ च तिष्ठ च ॥ ओं भूर्भुवः स्वः सूर्याय नमः ॥

६. सत्य : ततश्च दक्षिणे सत्यं ध्यात्वा चावाहयाम्यहम् । सत्येन दीक्षा फलति सश्रद्धा दक्षिणात्मिका । तत्सर्वं सत्यकाधारं सत्याय ते नमो नमः । ओं भूर्भुवः स्वश्च सत्य इहागच्छ तिष्ठ च। ओं भूर्भुवः स्वः सत्याय नमः ॥

७. भृश : ततो दक्षे भृशं ध्यात्वा चावाहयामि भावतः । आत्वा हार्षमन्तरभ्रुर्ध्रुवस्तिष्ठाऽविचाचलिः । विशस्त्वां सर्वे वाञ्च्छन्तु मा त्वद्राष्ट्रधिद्भ्रशत् । ओं भूर्भुवः स्वः भृश इहागच्छ तिष्ठ च ते नमः। ओं भूर्भुवः स्वः भृशाय नमः ॥

८. आकाश : ततो दक्षे महाकाशं ध्यात्वा चावाहयामि च । स्वरा नादा ध्वनयश्च सुनृता माध्व्य एव च । त्वयि सन्ति महाकाश तुभ्यं दिव्याय वै नमः । ओं भूर्भुवः स्वः आकाश इहागच्छ च तिष्ठ च । ओं भूर्भुवः स्वः आकाशाय नमः ॥

९. वायु : ततो दक्षे कोणभागेऽनलमावाहयामि च । वायुसखं तथा वायुं ध्यात्वा चावाहयामि च । अग्ने सप्तसहस्रात्यजिव्ह तुभ्यं नमो नमः । वायो सहस्ररथवन् वह्निमित्र च ते नमः । ओं भूर्भुवः स्वश्च वह्ने वायो चागच्छ तिष्ठ। ओं भूर्भुवः स्वः सवह्निवायवे नमः ॥

१०. पूष्ण : ततः पश्चे पूषणं च ध्यात्वा चावाहयामि च । पूषन् तव व्रते वयं न रिष्येम कदाचन । ओं भूर्भुवः स्वश्च पूषन्निहागच्छ च तिष्ठ च । पूष्णे नमस्तव स्तोतारो वयं स्मः सुखं कुरु। ओं भूर्भुवः स्वः पूष्णे नमः ॥

११. वितथ : ततः पश्चे त वितथं ध्यात्वा चावाहयामि च । वितथ त्वं सूर्यमहस्तुभ्यं नमः पुनः पुनः । ओं भूर्भुवः स्वः वितथ इहागच्छ च तिष्ठ च। ओं भूर्भुवः स्वः वितथाय नमः ॥

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