हमारा उद्देश्य कर्मकांडी और सामान्य जन दोनों को सप्रमाण शास्त्रोक्त चर्चा करते हुये अशौच में नवरात्रि और रजस्वला के लिये विधान संबंधी उचित व उपयोगी जानकारी प्रदान करना है। अशौच संबंधी सामान्य नियम तो हैं ही नवरात्र में कुछ विशेष नियम भी हैं जिसको जाने-समझे बिना सही निर्णय लेना कठिन होता है। इस आलेख में शास्त्रोक्त प्रमाणों का आधार लेते हुये अशौच होने पर नवरात्रि में क्या करना चाहिये एवं रजस्वला किस प्रकार करे इसकी विस्तृत जानकारी इस प्रकार दी गयी है की सामान्य जन भी सहजता से समझ सकें।
अशौच में नवरात्रि और रजस्वला संबंधी सप्रमाण शास्त्रोक्त जानकारी
अशौच संबंधी सामान्य नियम है कि मरणाशौच में सपिण्ड व गोत्रज आदि को भी कर्माशौच लगता है एवं संपूर्ण अर्थात दसरात्रि का होता है। अशौच में निषिद्ध : दानं प्रतिग्रहो होमः स्वाध्यायः पितृकर्म च। प्रेतपिण्डक्रियावर्जमाशौचे विनिवर्तते ॥ – दान, प्रतिग्रह, होम, स्वाध्याय और पितृकर्म आदि सभी कर्म; मात्र प्रेतपिण्ड व प्रेतकर्म को छोड़कर अशौच में वर्जित हो जाते हैं। सामान्य रूप से कर्माशौच को ही लोग अशौच समझ लेते हैं किन्तु अशौच के अनेक प्रकार हैं और अशौच संबंधी विस्तृत चर्चा शास्त्रों में साथ ही संपूर्ण कर्मकांड विधि पर इससे संबंधित जानकारी पूर्व में ही प्रकाशित की जा चुकी है : अशौच निर्णय पढ़ें।
उपरोक्त आलेख को पढ़ने के पश्चात् यह आलेख अधिक समझ में आ सकता है, तथापि यदि न भी पढ़े हो तो भी मुख्य विषय समझ में आ जाये इस प्रकार से यहां आगे की चर्चा की गयी है। उक्त आलेख में अशौच संबंधी विस्तृत चर्चा की गयी है जिसमें एक प्रकार क्षतजाशौच/स्रावाशौच भी है। क्षतजाशौच/स्रावाशौच के कारण ही किसी भी कर्म में एक दिन पूर्व ही क्षौर करने का विधान है किन्तु नवरात्र में जो त्रुटि देखी जाती है वो ये है कि नवरात्र में तो क्षौरकर्म नहीं करेंगे किन्तु प्रथमदिन को छोड़कर अर्थात प्रतिपदा को बहुत लोग करते हैं, जो कि शास्त्रसम्मत नहीं है।
इसी प्रकार अंतिम के दो दिन अष्टमी-नवमी को भी मेला घूमने के उद्देश्य से लोग क्षौर करते पाये जाते है और यह भी उचित नहीं है। यदि आस्थावान हैं तो सम्पूर्ण नियमों का पालन करें यदि नास्तिक हैं तो आधा नियम पालन करने की भी क्या आवश्यकता है इसी को तो पाखंड कहा जाता है।
मरणाशौच में नवरात्र
सामान्य नियमों की चर्चा अशौच निर्णय में की जा चुकी है यहां नवरात्र संबंधी विशेष प्रमाण और निर्णय को समझेंगे। “आरब्धे सूतकं न स्यादनारब्धे तु सूतकं” सामान्य नियमानुसार : यदि नवरात्र आरंभ होने से पूर्व मरणाशौच हो जाये तो नवरात्र की पूजा आदि नहीं कर सकते, मात्र उपवास कर सकते हैं जिसे कष्ट लेना भी बोला जाता है। यदि नवरात्र संकल्प कर लेने के उपरांत मरणाशौच हो तो वह संकल्पितों के कर्म का बाधक नहीं होता अर्थात जिसने संकल्प कर लिया है उसे प्रभावित नहीं करता।
हारीत स्मृति में कर्मारंभ को इस प्रकार स्पष्ट किया गया है – आरम्भो वरणं यज्ञे सङ्कल्पो व्रतजापयोः । नान्दीश्राद्धं विवाहादौ श्राद्धे पाकरिक्रिया ॥ किन्तु विश्वरूपनिबन्ध में नवरात्र विषयक एक विशेष तथ्य देखा जाता है –
आश्विने शुक्लपक्षे तु प्रारब्धे नवरात्रके । शवाशौचे समुत्पन्ने क्रिया कार्या कथं बुधैः ॥
सूतके “वर्तमाने” च तत्रोत्पन्ने सदा बुधैः । देवीपूजा प्रकर्तव्या पशुयज्ञविधानतः ॥
सूतके पूजनं प्रोक्तं दानं चैव विशेषतः । देवीमुद्दिश्य कर्तव्यं तत्र दोषो न विद्यते ॥
सूतके वर्त्तमाने का तात्पर्य तो यही होता है कि पूर्व से ही सूतक हो, और उसके लिये भी करने की आज्ञा है कि पशुयज्ञ विधान से करे। ये अलग विषय है कि पशुयज्ञ विधान संबंधी ज्ञानाभाव होना, इस विषय की चर्चा को बाधित करता है और यह चर्चा कहीं होती नहीं पायी जाती। वर्त्तमाने को यदि छोड़ दें तो मरणाशौच में और कोई विकल्प नहीं है, अर्थात सामान्य नियम ही स्थापित। सूतके “वर्त्तमाने” की चर्चा भी हम अन्यत्र है जो कि विद्वद्जनों के विचार का विषय है, लिंक : “सूतके वर्त्तमाने” की चर्चा
जननाशौच में नवरात्रा
सामान्य नियम ही स्थापित होने से मरणाशौच में तो अधिक विवाद नहीं है किन्तु जननाशौच होने पर विवाद होता है और अनेकानेक प्रकार के “मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना” की स्थिति देखी जाती है। हो भी क्यों न जब मति शास्त्र से ली ही न जाय। क्योंकि सर्वप्रथम तो जो लोग जननाशौच मानते हैं वो किस शास्त्र से मानते हैं यह कोई नहीं बता सकता क्योंकि जिसे जो मन में आता है 6 दिन 7 दिन आदि प्रकार से मानते हैं। इस प्रकार से जननाशौच का पालन करना शास्त्रविरुद्ध व्यवहार है और जो लोग इस प्रकार से जननाशौच स्वेच्छाचार नियम का पालन करते हैं उनको शास्त्र कथन व प्रमाण से क्या लेना-देना है।
दिन की संख्या हेतु अंगिरा, शातातप आदि का वचन है “सर्वेषामेव वर्णानां सूतके मृतके तथा । दशाहाच्छुद्धिरेतेषामिति शातातपोब्रतीत् ॥” अर्थात सभी वर्णों के लिये जननाशौच व मरणाशौच की निवृत्ति दशवें दिन हो जाती है, अर्थात दश दिन के पश्चात् ही शुद्धि होती है – 6 – 7 दिनों में नहीं। अब वो लोग सोचें जो मरणाशौच तो 10 दिन का मानते हैं किन्तु जननाशौच 10 दिन का नहीं मानते।
इसके पश्चात् अगला प्रश्न है कि जननाशौच किसे होता है और किसे नहीं ? अशौचपञ्जिका में जननाशौच का निर्णय आगे इस प्रकार बताया गया है कि माता-पिता व सौतेली माताओं को भी स्पर्शाशौच और कर्माशौच प्राप्त होता है। सपिण्डों को कर्माशौच मात्र प्राप्त होता है और बच्चे के माता–पिता आदि से संसर्ग करने वालों को कर्माशौच मात्र प्राप्त होता है। जननाशौच में मङ्गलाशौच किसी को भी प्राप्त नहीं होता है। किन्तु यह विषय उन लोगों को समझना कठिन होगा जिन्होंने अशौच निर्णय को नहीं पढ़ा-समझा है।
यहां तक की चर्चा जिन लोगों के समझ में न आयी हो वो आगे का विषय नहीं समझ सकते हैं अतः वैसे लोग पुनरावृत्ति करें और समझने के पश्चात् ही आगे पढ़ें। आगे पढ़ने के लिये “यहां क्लिक” करें)
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