अशौच में नवरात्रि और रजस्वला संबंधी सप्रमाण शास्त्रोक्त जानकारी – ashauch me navratri

अशौच में नवरात्रि और रजस्वला संबंधी सप्रमाण शास्त्रोक्त जानकारी - ashauch me navratri अशौच में नवरात्रि और रजस्वला संबंधी सप्रमाण शास्त्रोक्त जानकारी - ashauch me navratri

आप आगे पढ़ रहे हैं इसलिये यह अपेक्षा है कि अशौचपञ्जिका में जननाशौच का जो निर्णय इस प्रकार बताया गया है कि “माता-पिता व सौतेली माताओं को भी स्पर्शाशौच और कर्माशौच प्राप्त होता है। सपिण्डों को कर्माशौच मात्र प्राप्त होता है और बच्चे के माता–पिता आदि से संसर्ग करने वालों को कर्माशौच मात्र प्राप्त होता है, एवं मंगलाशौच किसी को भी नहीं होता” इसे समझ चुके होंगे और स्पर्शाशौच, कर्माशौच एवं मंगलाशौच को समझ चुके हैं।

अशौचपञ्जिका के उपरोक्त वचन के पश्चात् भी विशेष निर्णय शेष ही है और वह आदित्यपुराण से है जो इस प्रकार है : सूतके तु मुखंदृष्ट्वा जातस्यजनकस्ततः । कृत्वासचैलं स्नानन्तु शुद्धोभवति तत्क्षणः ॥ जातक के पिता को भी जातक को देखने के उपरांत अशौच की प्राप्ति होती है, श्रवणमात्र से नहीं जैसा कि मरणाशौच में होता है। पुनः एक विशेषता यह भी है कि सचैलस्नान करके पिता भी तत्क्षण ही शुद्ध हो जाता है न कि दशरात्रि के पश्चात्।

इसीलिये जातक का मुखदर्शन करने से पूर्व ही वृद्धिश्राद्ध कर लेने का विधान है, एवं वृद्धिश्राद्ध करने के उपरांत कर्मारंभ सिद्ध हो जाता है एवं जातकर्म, षष्ठीपूजन आदि के लिये अशौच अमान्य हो जाता है। किन्तु यदि जातक का मुखदर्शन कर ले तो भी सचैल स्नान करने मात्र से ही पिता शुद्ध हो जाता है, और आगे का कर्म (जातकर्म, षष्ठीपूजन आदि) कर सकता है।

इसी प्रकार एक अन्य प्रमाण है जो तत्काल अनुपलब्ध होने से भाव मात्र यह है कि जननाशौच जातक व माता मात्र के लिये होता है, पिता सचैल स्नान से शुद्ध होता है व अन्य किसी के लिये जननाशौच का अभाव होता है। इसका तात्पर्य यह भी है कि माता (और जातक) को ही जननाशौच की प्राप्ति होती है अन्य किसी को नहीं, यदि अन्य किसी को होती है तो वो है संसर्ग जन्य अशौच।

  1. पैठीनसी : जनौ सपिण्डाः शुचयो मातापित्रोस्तु सूतकं। सूतकं मातुरेव स्यादुस्पृश्य पिता शुचिः ॥
  2. सुमन्तु : “मातुरेव सूतकं तां स्पृशतां च, नैतरेतेषां”,
  3. वशिष्ठ : “नाशौच सूतके पुंसां संसर्ग चेन्न गच्छेति”
  4. संवर्त : सचैलं तू पितुस्नानं जाते पुत्रे विधीयते। माता शुद्धयेद्दशाहेन स्नानात्तु स्पर्शनं पितुः ॥

यह आलेख शीघ्रतापूर्वक दिया जा रहा है अतः और प्रमाण भविष्य में भी दिये जायेंगे। तत्काल त्वरा करने पर भी ऊपर इतने प्रमाण उपलब्ध हैं जो यह सिद्ध करते हैं कि जननाशौच की प्राप्ति पिता को भी तब होती है जब वह जातक का मुखदर्शन करे, फिर अन्यत्र के लिये संसर्ग किये बिना जननाशौच की सिद्धि कैसे हो सकती है। किन्तु शास्त्रों के वक्तव्यों का उचित अर्थ ग्रहण करने के लिये भी एक विशेष प्रकार के विवेक की आवश्यकता होती है और यदि वह विवेक न हो तो “सर्वनाशे समुत्पन्ने ह्यर्धं त्यजति पण्डितः” में डूबते भाई को बचाने के स्थान पर उसका सिर काट लेने का अर्थ ही लगाया जाता है।

और वैसे विवेकवान ही यहां अनेकानेक प्रमाणों की उपलब्धता होने पर भी किसी एक प्रमाण को लेकर जो यह सिद्ध भी न करता हो कि जननाशौच सभी को होता है लेकर कुतर्क करते रहेंगे। जैसे “सर्वेषामेव वर्णानां सूतके मृतके तथा । दशाहाच्छुद्धिरेतेषामिति शातातपोब्रतीत् ॥” इस वचन व अन्य वचनों में भी जो कहा गया है वह दिन की सख्या का बोधक है। किसे अशौच होगा और किसे नहीं इसका इसमें कोई निर्देश नहीं है वह तो अन्य प्रमाणों से ही ग्रहण करना होगा।

इस प्रकार यहां ये नहीं कहा जा रहा है कि ऐसा कोई प्रमाण नहीं होगा जो इसके विरुद्ध हो तथापि अनेकानेक प्रमाणों के मध्य ही निर्णय लिया जाता है। यदि इतने प्रमाण जननाशौच अभाव को प्रकट करते हैं और संसर्ग मात्र से संचार सिद्ध करते हैं तो यदि 1 – 2 ऐसे प्रमाण भी हो सकते हैं जो सबके लिये जननाशौच भी बताने वाले हों। परन्तु वहां यह तो देखना ही होगा कि सिद्धि किसकी हो रही है। यदि पिता को अशौच होता है तो वह जातकर्म, षष्ठी पूजन आदि कैसे करेगा ?

इस प्रकार नवरात्र में जनानशौच संबंधी जो विशेष सिद्धि होती है वो यह है कि जननाशौच की सिद्धि मात्र उनके लिये ही होती है जो माता से संसर्ग करता हो। यदि संसर्ग से बचे तो जननाशौच का अभाव हो जाता है और नवरात्र में कोई व्यवधान नहीं उत्पन्न होता है।

रजस्वला होने पर

रजस्वला होने पर तीन प्रकार की स्थिति उत्पन्न होती है :

  • प्रथम यह कि प्रथम दिन से पूर्व ही रजस्वला हो जाये।
  • द्वितीय यह कि नवरात्र के मध्य में रजस्वला हो।
  • तृतीय यह कि समाप्ति के तीन दिन पूर्व हो अर्थात व्रत समाप्ति में रजस्वला हो।

रजस्वला संबंधी विशेष चर्चा यहां दिये गये आलेख में की गई है।

  1. प्रथम स्थिति में रजस्वला स्त्री किसी अन्य प्रतिनिधि के माध्यम से पूजा कराये और स्वयं उपवास मात्र करे एवं सातवें दिन से स्वयं पूजनादि भी करे।
  2. द्वितीय स्थिति में भी प्रतिनिधि के माध्यम से ही पूजनादि कराये और स्वयं उपवास मात्र करे।
  3. तृतीय स्थिति में आतुरस्नान का विकल्प ग्रहण करके विसर्जन आदि करे। जिसकी चर्चा रजस्वला संबंधी उक्त आलेख में की गयी है।

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