नान्दीमुख श्राद्ध विधि – आभ्युदयिक श्राद्ध या वृद्धि श्राद्ध क्या है ?

नान्दी श्राद्ध करने की संपूर्ण विधि

सप्त घृत मातृका पूजन विधि अनुसार संपन्न करने के बाद नान्दीमुख श्राद्ध करना चाहिये। नान्दीमुख श्राद्ध को ही नान्दी श्राद्ध, आभ्युदयिक श्राद्ध या वृद्धि श्राद्ध भी कहा जाता है। मातृका पूजन (षोडश और सप्तघृत मातृका) वास्तव में वृद्धिश्राद्ध का ही पूर्वाङ्ग होने के कारण ही कर्तव्य होता है। वैसे दुर्गा-काली आदि शक्ति पूजन करते समय यदि विशेष विधि ग्रहण किया गया हो तो मातृका पूजन शक्ति पूजांग के रूप में भी किया जाता है।

 वृद्धिश्राद्ध विधान

वृद्धिश्राद्ध/नान्दीमुख या आभ्युदयिक श्राद्ध के निमित्त मातृका पूजन किया जाता है। वाचस्पति – आदौप्रधान संकल्पः ततः पुण्याहवाचनम् । मातृपूजा ततः कार्या वृद्धिश्राद्धं ततः स्मृतम् ॥

प्रधानकर्म संकल्प करके पुण्याहवाचन करे, तत्पश्चात मातृकापूजा और फिर वृद्धिश्राद्ध करे ।

मातृका-पूजनावश्यकता

विष्णुपुराणअकृत्वा मातृयागं तु वैदिकं यः समाचरेत् । तस्य क्रोधसमायुक्ता हिंसामिच्छन्ति मातरः

वृद्धिश्राद्ध से पूर्व पञ्चोपचारपूर्वक ही सही किन्तु मातृकापूजा अवश्य करे अर्थात वृद्धिश्राद्ध के निमित्त मातृका पूजा कर्तव्य है। कात्यायन – यत्रयत्र भवेच्छ्राद्धं तत्रतत्र च मातरः ।

चूंकि वृद्धि श्राद्ध के निमित्त ही मातृका पूजन का प्रावधान है अतः यत्र-कुत्र मातृका पूजन होता है वहां वृद्धिश्राद्ध भी कर्तव्य है। इस पर और विशेष चर्चा आगे करेंगे।

मातृपूजाप्रकार

छन्दोगपरिशिष्ट – प्रतिमासु च शुभ्रासु लिखित्वा वा पटादिषु । अपिवाक्षतपुञ्जेषु नैवेद्यैश्च पृथग्विधैः ॥

विष्णुपुराण – कन्यापुत्रविवाहेषु प्रवेशे नववेश्मनः । शुभकर्मणि बालानां चूडाकर्मादिके तथा ॥ सीमन्तोन्नयने चैव पुत्रादिमुखदर्शने । नान्दीमुखान्पितृनादौ तर्पयेत्मयतो गृही ॥ विवाह, गृहप्रवेश, चूडाकरणादि शुभकर्मादि में वृद्धि श्राद्ध करे ।

नान्दीमुख-श्राद्ध कितने दिन पूर्व करें :

एकविंशत्यहर्यज्ञे विवाहे दशवासराः । त्रिषट् चौलोपनयने नान्दीश्राद्धं विधीयते ॥

यज्ञ के २१ दिन पूर्व, विवाह के १० दिन पूर्व, चूड़ाकरण के ३ दिन पूर्व और उपनयन के ६ दिन पूर्व नान्दीश्राद्ध करने पर अशौच अमान्य होता है।

विवाहादि उत्सव में सूतक होने पर : वैवाहोत्सवयज्ञकर्मसु तदा नान्दी च दीक्षाविधिर्नाशौचस्यभवेत्तदा नियमिते सीमा द्विजन्मात्मनाम्।

उत्तरकालामृत – श्राद्धेपाकपरिक्रिया यदि भवेन्मन्त्रोक्षणं ब्राह्मणस्यासीद्दैक्षविधिः परं तु वरयेत्सर्वत्र मान्त्रो विधिः॥ और ;

जाबालि : व्रतयज्ञविवाहेषु श्राद्धेहोमार्चनेजपे। आरब्धे सूतकं न स्यादनारब्धे तु सूतकम्। प्रारम्भोवरणं यज्ञे संजल्पोव्रतसत्रयोः॥ नान्दीश्राद्धंविवाहादौ श्राद्धेपाकपरिक्रिया॥ संकटे समनुप्राप्ते सूतके समुपागते। कूष्माण्डीभिर्घृतं हुत्वा गां च दद्यात् पयस्विनीम् ॥

यज्ञ का प्रारम्भ वरण से, व्रत-सत्र-अनुष्ठानादि का आरंभ संकल्प से और श्राद्ध का पाक से होता है। किसी भी शास्त्रीय प्रारम्भ होने के बाद अशौच मान्य नहीं होता । नांदीमुखश्राद्ध का लोप करना कदापि उचित नहीं है।

श्राद्धकौमुद्यांनिर्णयामृतेचमात्स्ये अन्नप्राशेचसीमंते पुत्रोत्पत्ति निमित्तके । पुंसवे च निषेके च नववेश्म प्रवेशने ॥ देववृक्ष जलादीनां प्रतिष्ठायां विशेषतः । तीर्थयात्रावृषोत्सर्गेवृद्धिश्राद्धंप्रकीर्तितम् ॥ इदंचावश्यकम् ॥

शातातप : वृद्धौ न तर्पिता ये वै पितरोगृहमेधिभिः। तद्हीनमफलंज्ञेयं आसुरोविधिरेव स॥ पित्राद्याः पिण्डभाजः स्युस्त्रयो लेपभुजस्तथा । ततो नान्दीमुखाः प्रोक्तास्त्रयोऽप्यश्रुमुखास्त्रयः ॥

पिता-पितामह और प्रपितामह पिण्डभाजी पितर कहलाते हैं इनसे ऊपर के तीन पितर लेपभुज, इनसे ऊपर के तीन पितर नांदीमुख कहलाते हैं । नांदीमुखश्राद्ध पूर्वाह्न में कर्तव्य है । माता-पितामही और प्रपितामही, पिता-पितामह और प्रपितामह, एवं मातामह-प्रमातामह-वृद्धप्रमातामह (सपत्नीक); इन नवों के निमित्त नांदीमुखश्राद्ध किया जाता है। मातृपक्ष, पितृपक्ष और मातामह पक्ष तीन पक्षों का श्राद्ध होता है इसलिए तीनों पक्ष के निमित्त विश्वेदेव भी तीन होते हैं।

आसनक्रम के संबंध में दो पक्ष हैं –

  1. पश्चिम से पूर्व या दक्षिण से उत्तर और
  2. प्रदक्षिणक्रम से।

वृद्धपराशर – नान्दीमुखेभ्यो देवेभ्यः प्रदक्षिणकुशासनम् । पितृभ्यस्तन्मुखेभ्यश्च प्रदक्षिणमिति स्थितिः ॥

वृद्धपाराशर ने आसनक्रम को विशेष स्पष्ट किया है – प्रथमतया तीनों पक्ष के विश्वेदेवों को प्रदक्षिणक्रम से आसन दे, फिर अपने-अपने विश्वेदेव के निकट प्रदक्षिण क्रम से पितरों को आसन दे।

नांदीमुखश्राद्ध प्रातः काल में कर्तव्य है ।

जात कर्म में प्रातःकाल के अतिरिक्त भी किया जा सकता है ।

अत्रि : पूर्वाह्न वै भवेद् वृद्धिर्विना जन्मनिमितकम् । पुत्रजन्मनि कुर्वीत श्राद्धे तात्कालिकं बुधः ॥ अन्य संस्कारों एवं यज्ञादि में प्रातः ही करने चाहिए ।

प्राचेतस् – पूर्वाह्ने दैविकं कार्यं अपराह्ने तु पैतृकम् । एकोद्दिष्टं तु मध्याह्ने प्रातर्वृद्धिनिमित्तकम् ॥

प्रातः काल निर्णय : दिन के ५ भाग करने पर प्रथम प्रातः, द्वितीय संगव, तृतीय मध्याह्न, चतुर्थ अपराह्न और पंचम सायाह्न काल होता है । अर्थात् सूर्योदय से ६ दण्ड प्रातः काल होता है, यहां दण्ड को दिनमान का ३०वां भाग समझना चाहिए; न कि २४ मिनट। दिनमान के ह्रास-वृद्धि होने पर प्रातःकाल का मान दण्डादि में तो अपरिवर्तित रहेंगे तथापि घंटादि में घटेंगे-बढेंगे अतः प्रातः काल निर्धारण करने हेतु दिनमान के ३०वें भाग को ही दण्ड मानना चाहिए ।

यह मुख्यकाल है, तथा पूर्वाह्न को गौणकाल माना गया है । प्रातः और पूर्वाह्न में अंतर होता है, दिनमान का पांच भाग करने पर प्रथम भाग प्रातः संज्ञक और तीन भाग करने पर प्रथम भाग पूर्वाह्न संज्ञक होता है।

गर्ग : ललाटसम्मिते भानौ प्रथमः प्रहरः स्मृतः । स एव सार्द्ध संयुक्तः प्रातरित्यभिधीयते ॥ गर्ग के वचन से डेढ प्रहर प्रातः काल होता है । तथापि इसे गौणपक्ष माना जाएगा, यदि प्रथम काल निर्धारण से प्राप्त प्रातः काल में कार्य सम्पन्न न किया जा सके तो गर्ग वचन से गौणकाल भी मान्य। मुख्यकाल में जो कर्म सम्पन्न न हो सके उसे गौणकाल में भी कर लेना चाहिए ।

कात्यायन – प्रातरामन्त्रितान् विप्रान् युग्मानुभयतः स्थितान् । उपवेश्य कुशान् दद्यात् ऋजुनैव हि पाणिना ॥ वृद्धिश्राद्ध हेतु ब्राह्मणों को निमंत्रण भी प्रातःकाल ही देना चाहिए ।

नांदीमुखश्राद्ध ४ प्रकार का होता है :

  1. सपिण्ड
  2. पिण्डरहित
  3. आमश्राद्ध और
  4. हेमश्राद्ध।
  • शातातप – नानिष्ट्वा पितृन् श्राद्धे कर्म कुर्याच्चवैदिकम् ।
  • विष्णुपुराण – यज्ञोद्वाहप्रतिष्ठासु मेखलाबन्धमोक्षयोः । पुत्रजन्मनृपोत्सर्गे वृद्धिश्राद्धं समाचरेत्। वृद्धिश्राद्ध में निषिद्ध
  • पुराणसमुच्चय – न स्वधाशर्मवर्मेति पितृनाम न चोचरेत् । न कर्म पितृतीर्थेन न कुशा द्विगुणीकृताः ॥ न तिलैर्नापसव्येन पित्र्यमन्त्रविवर्जितम् । अस्मच्छब्दं न कुर्वीत श्राद्धे नान्दीमुखे कचित् ॥
  • (विहित) भृगु – गोत्र संबन्ध नामानि पितृकर्मणि कीर्तयेत् ।
  • व्यास – गोत्रसम्बन्धनामानि पितॄणामनुकीर्तयन् । एकैकस्य तु विप्रस्य अर्घपात्रं विनिक्षिपेत् ॥
  • माध्यन्दिन शाखा के लिये याज्ञवल्क्य वचन मान्य – गोत्रनाम स्वधाकारैस्तर्पयेदनुपूर्वशः ।
  • मार्कण्डेय पुराण – पिण्डनिर्वपणं कुर्यान्नवा कुर्याद्विचक्षणः । वृद्धिश्राद्धे कुलाचारदेशकालाद्यवेक्ष्य हि ॥ सपिण्ड व अपिण्ड भेदवश वृद्धिश्राद्ध में कर्तव्याकर्तव्य – अगौकरणमर्घ्यं च आवादनावनेजनम् । पिण्डश्राद्धे प्रकुर्वीत पिण्डहीने विवर्जयेत् ॥ पुत्र के प्रथम विवाह में पिता वृद्धिश्राद्ध करे, द्वितीयादि विवाहों में पुत्र (विवाहकर्ता) स्वयं करे ।
  • प्रयोगरत्न – नान्दीश्राद्धं पिता कुर्यादाद्ये पाणिग्रहे पुनः । अत ऊर्ध्वं प्रकुर्वीत स्वयमेव तु नान्दिकम् ॥ पुत्र के सभी संस्कारों में पिता स्वयं वृद्धिश्राद्ध करे, यदि पिता न हो (मृत या अनुपस्थित) तो शास्त्रीय प्रमाण से पितृधर्म निर्वाहक अन्य-अन्य व्यक्ति।
  • छन्दोग परिशिष्ट – स्वपितृभ्यः पिता दद्यात् सुतसंस्कारकर्मणि । पिण्डानोद्वहनात्तेषां तस्याभावे तु तत्क्रमात् ॥ वृद्धिश्राद्ध में १ पितर के निमित्त २ ब्राह्मणों को निमंत्रण दे, मूलहीन दर्भ का उपयोग करे, प्रदक्षिणक्रम से श्राद्ध करे, तिल के स्थान पर जौ का प्रयोग करे, पूर्वाभिमुख होकर करे, सव्य होकर ही करे, (ब्राह्मण के दक्षिण भाग में आसन दे – सपात्रक पर में), (आसन-अर्घ्यादि) पूर्व से आरम्भ करे (और प्रदक्षिणक्रम से करे-पूर्व कथित), मातृपक्ष ओर पितृपक्ष का अलग-अलग करे ।
  • आश्वालयन गृह्यसूत्र – अथाभ्युदयिके नान्दीमुखाः पितर एकैकस्य युग्मा ब्राह्मणा अमूलदर्भा प्रदक्षिणमुपचारो यवैस्तिलार्थ: प्राङ्मुखो यज्ञोपवीती कुर्यादृजून्दर्भानासनं दक्षिणतो दद्यादर्घ्यपात्राणि प्राक्संस्थानि स्युः । ‘ यवोसि सोमदेवत्यो गोसवे देवनिर्मितः । मत्नवद्भिः मत्तः पुष्ट्या नान्दीमुखान्पितृनिमाँल्लोकान्प्रीणयाहि नः स्वाहेति यथावपनं नान्दीमुखाः पितरः प्रीयन्तामिति यथालिङ्गं सकृदय निवेद्य, नान्दीमुखाः पितर इदं वो अर्घ्यमिति प्रत्येकं विगृह्य दत्त्वानुमन्त्रणं द्विर्द्विर्गन्धादि दद्यात्। पुंसवनादिष्वपत्यसंस्कारेषु अन्याधेयादिषु श्रौतेषु च पूर्तेषु च क्रियते महत्सु पूर्वेद्युस्तदहरल्पेषु तदिदमेके मातृणां पृथक् कुर्वन्यथ पितॄणां ततो मातामहानामिति त्रितयमिच्छन्ति तस्माज्जीवत्पिता सुतसंस्कारेषु मातृमातामहयोः कुर्यात्तस्यां जीवत्यां पितृमातामहयोः कुर्यात्पित्रोर्जीवतोर्मातामहस्यैव कुर्यात्रिषु जीवत्सु न कुर्यात्।

संस्कारकर्ता (जिसका संस्कार किया जायेगा उसका पिता) का पिता यदि जीवित हो तो पितृपक्ष का नहीं करे, यदि माता भी जीवित हो तो मातृपक्ष का भी नहीं करे केवल मातामहादि का ही करे, यदि मातामह भी जीवित हो तो वृद्धिश्राद्ध नहीं करे ।

शातातप : मातृश्राद्धं तु पूर्व स्यात् पितॄणां तदनन्तरम् । ततो मातामहादीनां वृद्धौ श्राद्धत्रयं स्मृतम् ॥

पहले मातृपक्षीयश्राद्ध करे, फिर पितृपक्षीय और अंत में मातामहपक्षीय ।

आश्वालयन – माता पितामही चैव संपूज्या प्रपितामही । पित्रादयस्त्रयश्चैव मातुः पित्रादयस्त्रयः । एते नवार्चनीयाः स्युः पितरोऽभ्युदये द्विजैः ॥

बह्वृचकारिका – स्यादाभ्युदयिकं श्राद्धं वृद्धिपूर्तेषु कर्मसु । पुंसस्सवनसीमन्त चौलोपनयनेष्विह । विवाहे चानलाघेय प्रभृतिश्रौतकर्मणि । इदं श्राद्धं प्रकुर्वन्ति द्विजा वृद्धिनिमित्तकम् ॥

शातातप – कर्तव्यं चाभ्युदयिकश्राद्धमभ्युदयार्थिना । सव्येन चोपवीतेन ऋजुदर्भैश्च धीमता ॥ पितॄणां रूपमाख्याय देवा अन्नं समश्नते । तस्मात्सव्येन दातव्यं वृद्धिकाले तु नित्यदा ॥

न तो वामजानुपात करे, न अपसव्य होकर करे, न ही पितृतीर्थ से करे, पूर्णतः देववत् करे – निपातानहि सव्यस्य जानुनोविद्यते क्वचित् । सदा परिचरेद्भक्त्या पित्तनप्यत्र देवत् ॥ नात्रापसव्यकरणं न पित्र्यन्तीर्थमिष्यते । पात्राणां पूरणादीनि दैवेनैव हि कारयेत् ॥

(वृद्धिश्राद्ध में भूस्वामि भी नहीं करे) । वृद्धिश्राद्ध सव्य ही करे, मोटक प्रयोग न करे, त्रिकुशा ही प्रयोग करे, वृद्धिश्राद्ध में पितृरूप धारित देवता ही अन्नादि ग्रहण करते हैं ;

मुरारी मिश्र – सव्येन सोपवीतेन ऋजुदर्भैश्च धीमता । पितॄणां रूपमास्थाय देवाह्यन्नं समश्नुते ॥ तस्मात्सव्येन दातव्यं वृद्धिश्राद्धेषु नित्यशः ॥ मधुरभोजन (मिष्टान्-फल), अन्न, अम्ल प्रदान करे, लाल फूल, तिल और अपसव्यता का त्याग करे ।

भविष्य पुराण – मधुरं भोजनं दद्यान्न चाम्लं परिवेषयेत् । रक्तपुष्पं तिलांश्चैव ह्यपसव्यं च वर्जयेत् ॥

वृद्धिश्राद्ध मंगल-अभिवृद्धि आदि में किया जाता है अतः स्वधा के स्थान पर स्वाहा कहे, कुशा के स्थान पर दूर्वा का प्रयोग करे ।

ब्रह्माण्डपुराण : स्वाहाशब्दं प्रयुञ्जीत स्वधास्थाने तु बुद्धिमान् । कुशस्थान तु दूर्वाः स्युर्मङ्गलस्याभिवृद्धये ॥

उत्तराभिमुख या पूर्वाभिमुख वृद्धिश्राद्ध करे, इसके अतिरिक्त अन्य दिशाभिमुख न करे । (मिथिला में पश्चिमाभिमुख प्रशस्त)

मार्कण्डेयपुराण : उदङ्मुखः प्राङ्मुखो वा यजमानः समाहितः । वृद्धिश्राद्धं प्रकुर्वीत नान्यवक्त्रः कदाचन ॥

पुत्र के सभी संस्कार पिता को ही करने चाहिए (असामयिक मृत्यु होने पर दाह संस्कार को छोड़कर) उपनयनादि में पितामह का संस्कारकर्ता होना गौणपक्ष है और पिताहीन होने पर ही पितामह को करना चाहिए अन्यथा नहीं, मातामहादि अन्य गोत्रियों को तो संस्कारकर्ता बनाना ही नहीं चाहिए । और यदि पिता हो तो, पितामह भी न करे केवल और केवल पिता ही करे । ऐसी परिस्थिति में यदि पितामह जीवित हो तो संस्कारकर्ता पिता पितृपक्षीय श्राद्ध नहीं करे ।

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